कबीर दास कहकर चले गए :"ज्यों की त्यों धर दीनी चदरिया " अपने ब्लॉग में, डाक्टर आदित्य शुक्ल ने अपनी कविता ""एसा जीना भी कोई जीना हुआ "" लगभग यही बात कही /
ज्यों की त्यों वापस करने में मुझे दिक्कत ये हो रही है की मानलो आपके बच्चा हुआ मैंने एक अच्छा खिलौना आपको भेंट किया आपने उसे सम्हाल कर सहेजकर रख लिया और पाँच साल बाद मेरे लड़का हुआ { वेसे दो साल बाद भी हो सकता है ऐसी कोई बात नहीं है } तो आपने मुझे वही खिलोना वापस कर दिया ,सोचिये मुझे कैसा लगेगा / दूसरी बात हम त्योहारों पर शुभ दिन की बधाई देते हैं {अंग्रेजी मैं } तो सामने वाला कहता है सेम टू यू =अब क्या होता है कि कोई कोई स को श प्रयोग करते है अब वह सेम टू यू में सेम में शीटी वाला श लगाकर बोलेगा तो आपको कैसा लगेगा /
जब चदरिया दी है तो उसका उपयोग करो ,उपभोग करो ,धुलवाओ , दो जने मिला कर ओढो, ठण्ड के मौसम में भी तो दो चादर या दो पतली रजाई मिला लेते है ,उसको मन पसंद रंगवाओ ""ऐसी रंग दे कि रंग नाही छूटे ,धोबिया धोये चाहे सारी उमरिया ,श्याम पिया मोरी रंग दे चुनरिया "" यदि देने वाले की ऐसी इच्छा होती कि मुझे एज ईट इज वापस मिलेगी तो वह देता ही क्यों ,थान के थान अपने पास ही न रखे रहता
एक कवियत्री रश्मि प्रभा ने अपने ब्लॉग में बहुत अच्छी बात कही है आज मेरा नाम सहयात्री है कल मेरा नाम नोनीहाल होगा = यह है आत्मबल जीवन जीने की कला वास्तविक जीवन ,नाते रिश्ते ,मोह माया में तटस्थ ,उत्फुल्लित ,प्रमुदित , न संतों से स्वर्ग का टिकेट कटाना है न ही उनसे लुटना है न जिम्मेदारी से भागना है =कल मेरा नाम नोनीहाल होगा, एक उमंग. एक उत्साह, एक आश्वासन ,एक निश्चितता वरना तो जैसा कहा है तू इसी धुन में रहा मर के मिलेगी जन्नत तुझको ऐ शेख न जीने का सलीका आया "" वरना तो इस उधेड़बुन में फिरते रहो इस शास्त्र से उस शास्त्र तक इस ज्ञानी से उस ज्ञानी तक ""भटकती है प्यास मेरी इस नदी से उस नदी तक ""
एक कवि हैं ,मुंबई के ,हरिवल्लभ श्रीवास्तव उन्होंने अपने गजल संग्रह "पिघलते दर्द "" में लिखा है ""बनाया जो विधाता ने उसे उस काम में ही लो ""बस यहीं तो दिक्कत है ,किस काम के लिए बनाया है ख़ुद जानते नहीं और किसी की मानते नहीं /अरे जब शंकर जी की पत्नी सती ने शंकरजी का उपदेश नहीं माना वह भी बार बार कहने पर भी ""लाग न उर उपदेसू जदपि कहेउ सिब बार बहु "" वहाँ तो एक ही थे यहाँ तो अनेक उपदेश और वे भी परस्पर विरोधी तो ""मति भ्रम तोर प्रकट मैं जाना "वाली स्थिति क्यों नही होगी/
ज्यों की त्यों बिल्कुल सरकारी घोष विक्रय की तरह "" जहाँ है जैसा है नीलाम किया जाना है " बात ही खत्म =चदरिया ज्यों कि त्यों जैसी है वैसी, जरा जीर्ण भी हो सकती है, फटी पुरानी भी हो सकती है, मैली कुचेली भी हो सकती है /यहाँ कृष्ण की बात ठीक लगती है + जैसे व्यक्ति पुराने बस्त्रों को त्याग कर नए वस्त्र धारण करता है /बात एकदम सटीक ,पके बाल ,आंखों से ऊँट भी दिखाई न दे ,दंत नही ,पोपला मुंह ;झुर्रियां , इस वस्त्र के बदले. नए मिलें तो कौन नही लेना चाहेगा /मगर इस बात को सब कहाँ मानते है किसी ने आत्मा को, तो किसी ने ईश्वर को ,तो किसी ने पुनर्जन्म को नकार दिया है. और नकारने वाले भी असाधारण महापुरुष ,भगवान्, तो व्यक्ति का भ्रमित होना स्वाभाबिक है /
आदमी किंकर्तव्यबिमूढ़ हो जाता है क्या सत्य है क्या गलत है /
आदमी बोलने में तो अनिश्चित रहता ही है क्या बोले क्या न बोले / एक महिला कर्मी ने , एक सज्जन का बरसों से उलझा इन्कमटेक्स का निराकरण कर दिया ,लेन-देन की कोई बात नही थी तो शब्दों से ही धन्यबाद देना था / अब वे सोचने लगे क्या कहूं " मैं आपका किसतरह से शुक्रिया अदा करूं ,किस प्रकार अहसान चुकाऊंगा ,किस भांति धन्यवाद दूँ / और सज्जन मैं आपका किस कहकर तरह ,भांति ,प्रकार के सोच में पड़े, इधर महिला देख रही है मेरे सामने खड़ा आदमी मैं आपका किस, कहकर चुपचाप खड़ा हुआ है तो उसने चांटा मार दिया/
तो भ्रमित आदमी डरता है कि कहीं पुराना ले लिया और नया नहीं दिया तो /कुछ बातें छोटी होती हैं मगर भ्रम की स्थिति तो बना देती है, जैसे कबीर ने कहा ,ध्रुब ,प्रहलाद ,सुदामा ने ओढी , अब सुदामा कौन ?,नाम सुनते ही हमें एक दुर्बल ब्रद्ध सिंहासन पर दिखने लगता है जिसके कृष्ण पैर धो रहे हैं "पानी परांत को हाथ छुओ नहीं नैनन के जल सों पग धोये " लेकिन भागवतकार ने तो सुदामा का नाम ही नही लिया , एक गरीब बिप्र कहा है द्वारका जाने से अमीर होकर लौटने तक कहीं सुदामा नाम नहीं आया है तो फ़िर वह बिप्र जिसका जिक्र व्यास जी ने किया है उसका नाम सुदामा किसने रखा / और देखिये हम जानते है कृष्ण ने गोबर्धन उठाया तस्वीर देखिये वाया हाथ और कथा यह कि वाएं हाथ की कनिष्ठा अंगुली से, व्यास जी ने तो वायां दायां हाथ कुछ लिखा ही नही है/
मैं परसाई जी का ब्यंग्य "" अकाल उत्सब "" पढ़ रहा था उन्होंने लिखा "" मैं रामचरितमानस उठा लेता हूँ ,इससे शांती मिलेगी ,यों ही कोई प्रष्ट खोल लेता हूँ , संयोग से लंका काण्ड निकल पड़ता है ,मैं पढता हूँ अशोक वाटिका में त्रिजटा को धीरज बंधाती है ,त्रिजटा को भी मेरी तरह सपना आया था "" अब कोई मुझसे कहे कि सपना तो सुन्दरकाण्ड में आया था , और मैंने रामायण पढी न हो तो मैं तो लंका काण्ड और सुंदर काण्ड में मतिभ्रम हो ही जाउंगा/
फिर प्राचीन ग्रन्थ और आधुनिक साइंस विरोधाभाषी हैं अब शुक्राचार्य शुक्रनीति में कहते है ""एकम्बरा क्र्शादी ...........मह स्त्रयम ""{३६२}एक वस्त्र धारण करे ,कृष और मलिन सी रहकर स्नान अलंकार धारण छोड़ देवे भूमि में सोवे और इसी तरह तीन दिन विता दे -डाक्टर मानेगा इस बात को , पहले के लोग कुछ ज़्यादा ही सोचते थे औरतों के वारे में =भरथरी का श्रंगार देखो वे नारी के अंगों की स्वर्ण कलश से ही तुलना करते रहे ,एक को तो नदी ही लेटी हुई स्त्री दिखाई दे रही है अब दोनों किनारों को ...... क्या बताऊँ अब में आपको =करते भी क्या वेचारे , न फेशन चेनल था ,न रेन टीबी न पी ई एच चेनल तो करते रहते थे कल्पना /खैर /
तो आदमी डरता है कि कही पुराना लेलिया और नया वस्त्र नहीं दिया तो ? कृष्ण ने कहा है, गारंटी तो नही ली यदि यह अस्वासन दिया होता कि जो यह पुराना वस्त्र लिया है उसको फलां शहर के फलां गाँव के पटेल के यहाँ नया देदिया है तो सब भागे जाते वहां और दो परिवारों ,भिन्न जाती, भिन्न सम्प्रदाय ,में प्रेम भाव कितना बढ़ जाता ,सारे दंगे फसाद बंद /
जब मुझे पता है के मेरी बेटी फलां देश में व्याही है वहाँ बेटी के सास ससुर है ,दामाद है ,मेरी बेटी की ननदें है तो मैं कैसे वहां का बुरा सोच सकता हूँ और वहाँ दामाद भी सोचेगा कि यहाँ मेरे सास सुसर ,साले ,ममिया सुसर वगेरा वगेरा है तो यहाँ का अनिष्ट वह क्यों चाहेगा
तो फिर अब कौन बतायेगा कि कबीर का आदेश मान कर ज्यों की त्यों चदरिया कैसे वापस की जाबे/
पूज्य माँ
11 years ago
11 comments:
बड़े भाई !
आपकी लेखनी सशक्त है ! प्रणाम
भाई साहब,अब कबीरदास जी ने अगर अपनी चदरिया को इस्तमाल भी कर लिया और ज्यो की त्यौ वापिस भी कर दिया तो आप क्यूँ नाहक परेशान हो रहें हैं।आप को अपनी चदरिया का जो करना है किजिए।
भाई, रास्ते दो तरफ जाते हैं एक है बाहर की ओर दूसरा है आप की ओर।यदि आप की यात्रा अन्दर की ओर है तो कबीर की बात सही है। नही तो ...आप जैसा चाहे..
@आनंद संभोग से भी मिलता है समाधी से भी।@
अब यह आप पर निर्भर है कि आप कैसा आनंद चाहते हैं।
अब आप सोचिए।
भाई साहब,अब कबीरदास जी ने अगर अपनी चदरिया को इस्तमाल भी कर लिया और ज्यो की त्यौ वापिस भी कर दिया तो आप क्यूँ नाहक परेशान हो रहें हैं।आप को अपनी चदरिया का जो करना है किजिए।
भाई, रास्ते दो तरफ जाते हैं एक है बाहर की ओर दूसरा है आप की ओर।यदि आप की यात्रा अन्दर की ओर है तो कबीर की बात सही है। नही तो ...आप जैसा चाहे..
@आनंद संभोग से भी मिलता है समाधी से भी।@
अब यह आप पर निर्भर है कि आप कैसा आनंद चाहते हैं।
अब आप सोचिए।
आप की समस्या विकट है क्योंकि आप समझते हैं कि चदरिया आपने बाजार से दाम चुका कर खरीदी है। जब कि यह चादर जिसने बनायी है, वह इसे बेचता नहीं है, सिर्फ़ किराये पर देता है। कुछ समय के लिए प्रयोगार्थ; जैसे टेण्ट-हाउस वाले देते हैं।
अब यदि आपने जतन से नहीं ओढ़ा और इसे मैला कुचैला कर दिया, या नष्ट-भ्रष्ट कर दिया तो दाम कुछ-कुछ ज्यादा ही चुकाना पड़ेगा। बल्कि कुछ-कुछ नहीं बहुत कुछ चुकाना पड़ेगा।
वैसे आप लिखते अच्छा हैं। एक ही पैक में कई आइटम दे रहे हैं। बधाई।
अरे ५ साल बाद तो आपके याद भी न होगा कि कौनसा खिलौना आपने दिया । और जरूरी नही कि उसीके दें किसी अन्य को भी तो दिया जा सकता है । वैसे लेख अच्छा है।
हास्य-व्यंग्य की दृष्टि से यदि आपकी रचना को देखूँ तो ठीक ठाक लगती है। ठीक ठक इसलिए क्योंकि सुधार की गुंजाईश है।
जहाँ तक कबीर के "ज्यों की त्यों धर दीन्हीं चदरिया" का सवाल है, यह गहरे अर्थों में कही गयी बात है। इसपर लिखने के लिए काफी समय चाहिए। गीता का अध्ययन सहायक साबित होगा इस संदर्भ में।
सादर
श्यामल सुमन
09955373288
मुश्किलों से भागने की अपनी फितरत है नहीं।
कोशिशें गर दिल से हो तो जल उठेगी खुद शमां।।
www.manoramsuman.blogspot.com
लेख अच्छा है....सबका अपना अलग दृष्टिकोण होता है...सही या ग़लत समझना तर्कसंगत शायद नहीं ...किंतु आलेख सुंदर है...
खींचा बढियां है -बरबाद कर डालिए चदरिया !
गम्भीरता है।
bahut hi badhiyaa likha hai ......
dhaagon ko jaise hum suljhate hain,thik usi tarah aapne kafi majbooti se apni baaton ko rakha hai....
बहोत हल्के में ले गए साहब आप चदरिया को वकालत करते तो और ज्यादा आगे जाते।
कबीर साहब ने आप जैसे पोथी प्रांगतो के लिए ही कहा था
कबीर का घर शिखर पे जहा सिलहलि गैल।
पाँव टिके ना पपील.....का पंडित लादे बैल।
उपयोग और उपभोग में बड़ा छोटा सा अंतर हैं योग और भोग का।
उदाहरण के तौर पर
आप के घर मेहमान बन कर कौई आया आपने उसे रात को चादर दी के लीजिये साहब सो जाइये और उस ने रात भर में उस पर बीड़ी के पतंगे से उसे जलाया तम्बाखू के रंग से रंगा। फिर सुबह उसे बिना तह लगाये यूँ ही छोड़ छाड़ कर चल दिया। आप को कैसा लगेगा।
और दूसरा मेहमान आया उसने रात भर इस चादर को सिर्फ ओढ़ा और सुबह तह कर के आप के हवाले की आप को कैसा लगेगा।
उनका चादर से मतलब ये आत्मा हैं ना की शरीर। आत्मा को ही रंगा जा सकता हैं। शरीर को नहीं
उन्हीने कहा हैं की मैंने अपनी आत्मा को जैसा ईश्वर ने भेजा बिना कोई संकार ग्रहण किये वैसा ही वापिस कर दिया।
खैर। कहा ना ये सिलहलि गैल हैं। यहाँ पुस्तको से लदे बैल नहीं चल सकते।
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