Saturday, September 27, 2008

ज्यों की त्यों धर दीनी

कबीर दास कहकर चले गए :"ज्यों की त्यों धर दीनी चदरिया " अपने ब्लॉग में, डाक्टर आदित्य शुक्ल ने अपनी कविता ""एसा जीना भी कोई जीना हुआ "" लगभग यही बात कही /

ज्यों की त्यों वापस करने में मुझे दिक्कत ये हो रही है की मानलो आपके बच्चा हुआ मैंने एक अच्छा खिलौना आपको भेंट किया आपने उसे सम्हाल कर सहेजकर रख लिया और पाँच साल बाद मेरे लड़का हुआ { वेसे दो साल बाद भी हो सकता है ऐसी कोई बात नहीं है } तो आपने मुझे वही खिलोना वापस कर दिया ,सोचिये मुझे कैसा लगेगा / दूसरी बात हम त्योहारों पर शुभ दिन की बधाई देते हैं {अंग्रेजी मैं } तो सामने वाला कहता है सेम टू यू =अब क्या होता है कि कोई कोई स को श प्रयोग करते है अब वह सेम टू यू में सेम में शीटी वाला श लगाकर बोलेगा तो आपको कैसा लगेगा /

जब चदरिया दी है तो उसका उपयोग करो ,उपभोग करो ,धुलवाओ , दो जने मिला कर ओढो, ठण्ड के मौसम में भी तो दो चादर या दो पतली रजाई मिला लेते है ,उसको मन पसंद रंगवाओ ""ऐसी रंग दे कि रंग नाही छूटे ,धोबिया धोये चाहे सारी उमरिया ,श्याम पिया मोरी रंग दे चुनरिया "" यदि देने वाले की ऐसी इच्छा होती कि मुझे एज ईट इज वापस मिलेगी तो वह देता ही क्यों ,थान के थान अपने पास ही न रखे रहता
एक कवियत्री रश्मि प्रभा ने अपने ब्लॉग में बहुत अच्छी बात कही है आज मेरा नाम सहयात्री है कल मेरा नाम नोनीहाल होगा = यह है आत्मबल जीवन जीने की कला वास्तविक जीवन ,नाते रिश्ते ,मोह माया में तटस्थ ,उत्फुल्लित ,प्रमुदित , न संतों से स्वर्ग का टिकेट कटाना है न ही उनसे लुटना है न जिम्मेदारी से भागना है =कल मेरा नाम नोनीहाल होगा, एक उमंग. एक उत्साह, एक आश्वासन ,एक निश्चितता वरना तो जैसा कहा है तू इसी धुन में रहा मर के मिलेगी जन्नत तुझको ऐ शेख न जीने का सलीका आया "" वरना तो इस उधेड़बुन में फिरते रहो इस शास्त्र से उस शास्त्र तक इस ज्ञानी से उस ज्ञानी तक ""भटकती है प्यास मेरी इस नदी से उस नदी तक ""

एक कवि हैं ,मुंबई के ,हरिवल्लभ श्रीवास्तव उन्होंने अपने गजल संग्रह "पिघलते दर्द "" में लिखा है ""बनाया जो विधाता ने उसे उस काम में ही लो ""बस यहीं तो दिक्कत है ,किस काम के लिए बनाया है ख़ुद जानते नहीं और किसी की मानते नहीं /अरे जब शंकर जी की पत्नी सती ने शंकरजी का उपदेश नहीं माना वह भी बार बार कहने पर भी ""लाग न उर उपदेसू जदपि कहेउ सिब बार बहु "" वहाँ तो एक ही थे यहाँ तो अनेक उपदेश और वे भी परस्पर विरोधी तो ""मति भ्रम तोर प्रकट मैं जाना "वाली स्थिति क्यों नही होगी/

ज्यों की त्यों बिल्कुल सरकारी घोष विक्रय की तरह "" जहाँ है जैसा है नीलाम किया जाना है " बात ही खत्म =चदरिया ज्यों कि त्यों जैसी है वैसी, जरा जीर्ण भी हो सकती है, फटी पुरानी भी हो सकती है, मैली कुचेली भी हो सकती है /यहाँ कृष्ण की बात ठीक लगती है + जैसे व्यक्ति पुराने बस्त्रों को त्याग कर नए वस्त्र धारण करता है /बात एकदम सटीक ,पके बाल ,आंखों से ऊँट भी दिखाई न दे ,दंत नही ,पोपला मुंह ;झुर्रियां , इस वस्त्र के बदले. नए मिलें तो कौन नही लेना चाहेगा /मगर इस बात को सब कहाँ मानते है किसी ने आत्मा को, तो किसी ने ईश्वर को ,तो किसी ने पुनर्जन्म को नकार दिया है. और नकारने वाले भी असाधारण महापुरुष ,भगवान्, तो व्यक्ति का भ्रमित होना स्वाभाबिक है /

आदमी किंकर्तव्यबिमूढ़ हो जाता है क्या सत्य है क्या गलत है /

आदमी बोलने में तो अनिश्चित रहता ही है क्या बोले क्या न बोले / एक महिला कर्मी ने , एक सज्जन का बरसों से उलझा इन्कमटेक्स का निराकरण कर दिया ,लेन-देन की कोई बात नही थी तो शब्दों से ही धन्यबाद देना था / अब वे सोचने लगे क्या कहूं " मैं आपका किसतरह से शुक्रिया अदा करूं ,किस प्रकार अहसान चुकाऊंगा ,किस भांति धन्यवाद दूँ / और सज्जन मैं आपका किस कहकर तरह ,भांति ,प्रकार के सोच में पड़े, इधर महिला देख रही है मेरे सामने खड़ा आदमी मैं आपका किस, कहकर चुपचाप खड़ा हुआ है तो उसने चांटा मार दिया/

तो भ्रमित आदमी डरता है कि कहीं पुराना ले लिया और नया नहीं दिया तो /कुछ बातें छोटी होती हैं मगर भ्रम की स्थिति तो बना देती है, जैसे कबीर ने कहा ,ध्रुब ,प्रहलाद ,सुदामा ने ओढी , अब सुदामा कौन ?,नाम सुनते ही हमें एक दुर्बल ब्रद्ध सिंहासन पर दिखने लगता है जिसके कृष्ण पैर धो रहे हैं "पानी परांत को हाथ छुओ नहीं नैनन के जल सों पग धोये " लेकिन भागवतकार ने तो सुदामा का नाम ही नही लिया , एक गरीब बिप्र कहा है द्वारका जाने से अमीर होकर लौटने तक कहीं सुदामा नाम नहीं आया है तो फ़िर वह बिप्र जिसका जिक्र व्यास जी ने किया है उसका नाम सुदामा किसने रखा / और देखिये हम जानते है कृष्ण ने गोबर्धन उठाया तस्वीर देखिये वाया हाथ और कथा यह कि वाएं हाथ की कनिष्ठा अंगुली से, व्यास जी ने तो वायां दायां हाथ कुछ लिखा ही नही है/

मैं परसाई जी का ब्यंग्य "" अकाल उत्सब "" पढ़ रहा था उन्होंने लिखा "" मैं रामचरितमानस उठा लेता हूँ ,इससे शांती मिलेगी ,यों ही कोई प्रष्ट खोल लेता हूँ , संयोग से लंका काण्ड निकल पड़ता है ,मैं पढता हूँ अशोक वाटिका में त्रिजटा को धीरज बंधाती है ,त्रिजटा को भी मेरी तरह सपना आया था "" अब कोई मुझसे कहे कि सपना तो सुन्दरकाण्ड में आया था , और मैंने रामायण पढी न हो तो मैं तो लंका काण्ड और सुंदर काण्ड में मतिभ्रम हो ही जाउंगा/

फिर प्राचीन ग्रन्थ और आधुनिक साइंस विरोधाभाषी हैं अब शुक्राचार्य शुक्रनीति में कहते है ""एकम्बरा क्र्शादी ...........मह स्त्रयम ""{३६२}एक वस्त्र धारण करे ,कृष और मलिन सी रहकर स्नान अलंकार धारण छोड़ देवे भूमि में सोवे और इसी तरह तीन दिन विता दे -डाक्टर मानेगा इस बात को , पहले के लोग कुछ ज़्यादा ही सोचते थे औरतों के वारे में =भरथरी का श्रंगार देखो वे नारी के अंगों की स्वर्ण कलश से ही तुलना करते रहे ,एक को तो नदी ही लेटी हुई स्त्री दिखाई दे रही है अब दोनों किनारों को ...... क्या बताऊँ अब में आपको =करते भी क्या वेचारे , न फेशन चेनल था ,न रेन टीबी न पी ई एच चेनल तो करते रहते थे कल्पना /खैर /

तो आदमी डरता है कि कही पुराना लेलिया और नया वस्त्र नहीं दिया तो ? कृष्ण ने कहा है, गारंटी तो नही ली यदि यह अस्वासन दिया होता कि जो यह पुराना वस्त्र लिया है उसको फलां शहर के फलां गाँव के पटेल के यहाँ नया देदिया है तो सब भागे जाते वहां और दो परिवारों ,भिन्न जाती, भिन्न सम्प्रदाय ,में प्रेम भाव कितना बढ़ जाता ,सारे दंगे फसाद बंद /

जब मुझे पता है के मेरी बेटी फलां देश में व्याही है वहाँ बेटी के सास ससुर है ,दामाद है ,मेरी बेटी की ननदें है तो मैं कैसे वहां का बुरा सोच सकता हूँ और वहाँ दामाद भी सोचेगा कि यहाँ मेरे सास सुसर ,साले ,ममिया सुसर वगेरा वगेरा है तो यहाँ का अनिष्ट वह क्यों चाहेगा

तो फिर अब कौन बतायेगा कि कबीर का आदेश मान कर ज्यों की त्यों चदरिया कैसे वापस की जाबे/

Sunday, September 21, 2008

व्यंग्य हमारी समझ न आवे

आज से लगभग पचास साल पूर्व जब मैंने कोर्स की पुस्तकों के अतिरिक्त कुछ पढ़ना शुरू किया था तब मेरी समझ में यह नहीं आता था की व्यंग्य क्या है और व्यंग्य कार कौन है ,यह बात आज भी मेरी समझ में नहीं आती है , इतना जरूर समझ में आता है मैंने व्यंग्य पढ़े नहीं , व्यंग्य समझता नहीं और व्यंग्य लिखने की कोशिश करता हूँ यही व्यंग्य है /
लेख में व्यक्तिगत आक्षेप ,द्विअर्थी बात या चुटकुले लेख को व्यंग्य बना देते हैं /चुटकुले और व्यंग्य का अन्तर भी मैं नही समझ पाता, क्या जिस चुटकुले को सुनकर हंसी आजाये वह चुटकुला और जिसे सुन कर हंसी न आए वह व्यंग्य / किसी किसी को चुटकुले देर में समझ में आते है तो क्या जब तक समझ में न आवे तब तक व्यंग्य और समझ में आते ही चुटकुला हो जाता है /
चेनल की बातें हास्य हैं ,व्यंग्य है , हकीकत है , फ़साना है क्या है मसलन ''''कहीं भी मत जाइयेगा , दिल थाम कर बैठिएगा ,आपके दिल दहल जायेंगे, आप देखेंगे एक ऐसी कातिल पिस्टल जो आपने अभी तक नहीं देखी होगी -केवल हम ही पहली बार आपको दिखा रहे हैं -और आप भी पहली बार इसे देखेंगे ,एक ऐसी पिस्तोल जो देखने में तो आम पिस्तोल जैसी है मगर है बहुत मारक, घातक एक ऐसी पिस्तोल जिससे ऐसी गोली निकलती है जो न डाकू को पहिचान्ती है न संत को , बालक को पहिचानती है न ब्रद्ध को, न दोस्त को पहचानती है न दुश्मन को, ऐसी गोली निकलने वाली पिस्तोल आप देखेंगे थोड़े अन्तराल के बाद, कहीं भी मत जाइएगा ,बाथरूम भी नहीं "" और आधा घंटा बाद , डकेती की योजना बनते व्यक्ति से पुलिस द्वारा जप्त पिस्तोल दिखा देंगे, वह भी लाल गोल घेरे में /
"" आप देखेंगे मोबाईल में यमराज ,नाग का पुनर्जन्म , दुनिया नष्ट हो जायेगी ,सब कुछ मिट जाएगा केवल हम बचे रहेंगे आपको बताने के लिए की दुनिया नष्ट हो चुकी है और सब कुछ मिट चुका है ""
वर्तमान समय में में आदमी इतना निराश्रित हो चुका है या यह कहें कि सरकार प्रशासन पर इतना आश्रित हो चुका है कि कुछ मत पूछो ,मिलजुल कर एक दूसरे की मदद करने की वजाय मिलजुल कर सरकार को कोसेंगे / कहीं बरसात में या केले के छिलके से फिसल कर कोई गिर पड़े , तो, वह इस उम्मीद में पड़ा रहेगा कि सरकार उठाने आए / और चेनल "" एक व्यक्ति यहाँ फिसला पड़ा और प्रशासन सोया हुआ है ' पुलिस भी अभी तक मौके पर नहीं आई है ,भीड़ बड़ती चली जारही है और आप देख रहे है लाइव टेलीकास्ट / ग्रतक ( गिरे हुए ) से हमारा संबाददाता बात कर रहा है ग्रतक का कहना है कि मंत्री जी ख़ुद आकर उठाएंगे तो उठूंगा मगर मंत्री जी है कि उन्हें सुरक्षा व्यबस्था की मीटिंग से ही फुर्सत नहीं मिल पारही है, इन्हे इस ग्रतक की बिल्कुल परवाह नहीं है / राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन प्रकोष्ठ से भी अभी तक कोई नहीं आया है /जिलाधीश चुनाव की तैयारी और सेना बाढ़ पीडितों की मदद करने में ही लगी हुई है , ग्रतक पर कोई भी बड़ी विपत्ति आ सकती है कोई इसकी चेन छीन सकता है कोई ट्रक इसे कुचल सकता है /
आप देख रहे है लाईव टेलीकास्ट भीड़ बड़ चुकी है बच्चे तालिया बजा रहे हैं ,महिलायें मुह छुपा कर हंस रही है मगर प्रशासन सोया हुआ है न अभी तक केले के छिलके फैकने वाले को पुलिस पकड़ पाई है न ही केले बेचने वाले को ,सुना है स्केच बनवाया जा रहा है / अब हम भीड़ में खड़े लोगों से पूछते हैं कि उनके क्या विचार है , हाँ आपका नाम .....क्या करना चाहिए "" क्या करना चाहिए इसे उठ कर घर चले जाना चाहिए "" अच्छा अब दूसरे से पूछते हैं ,आपकी राय में क्या करना चाहिए "" देखिये कलेक्टर को आकर इसे मुआवजा देना चाहिए , पुलिस द्वारा छिलके वाले को गिरफ्तार करना चाहिए और किसी मिनिस्टर को आकर इसे उठाना चाहिए
देखिये पचास प्रतिशत लोगों की राय ये है ..... और पचास प्रतिशत के राय ...... है , आप भी अपनी राय हमें एस एम् एस कर सकने हैं "" पुराना साहित्य क्या व्यंग्य था या हकीकत थी मसलन रीति काल - भवरे कमल समझ कर चेहरे पर मंडराया करते थे , अब या तो मुख कमल थे या भवरे वेबकूफ थे / राज कुमार नगर से जारहे हैं ऊपर झरोके में बैठी हुई को देखते हैं और बेहोश होकर गिर पड़ते हैं / आज के आयटम सोंग युग में वे होते तो तो न जाने कितनी बार मरते " सौ बार जनम लेंगे ,सौ बार फ़ना होंगे ऐ जाने वफ़ा फ़िर भी हम आयटम सोंग देखेंगे "
व्यंग्य मेरी समझ में बिल्कुल ही न आते हों ऐसी बात भी नहीं है / मैं मुंशी प्रेमचंद जी की कहानी पढ़ रहा था उसमें एक जगह महात्मा के वारे में पढ़ा "" तेजस्वी मूर्ती थी पीताम्बर गले में , जटा सर पर , पीतल का कमंडल हाथ में ,खडाऊ पैर में ,ऐनक आंखों पर , सम्पूर्ण वेष उन महात्माओं का सा था जो रईसों के प्रासादों में तपस्या , हवा गाड़ियों में देव स्थानों की परिक्रमा और योग सिद्धि प्राप्त करने के लिए रूचिकर भोजन करते हैं ""
यह भी मेरी समझ में आया कि सीता हरण में कंचन म्रग एक कारण था और जब सीता को खोजते राम बन में जाते है और उनसे डर कर हिरन भागने लगते है तो हिरनियाँ हिरनों से कहती है ""तुम आनंद करहु म्रग जाए , कंचन म्रग खोजन ये आए ""
मैं तो केवल यह नहीं समझ पाता हूँ कि पूरी रचना या लेख में केवल एक लाइन का व्यंग्य पूरी रचना को व्यंग्य बना देता है या कि जो लेखक व्यंग्य लेखक के रूप में ख्याति अर्जित कर चुका है उसकी कही गई या लिखी गई हर बात व्यंग्य हो जाती है कुछ लोंगों का विचार है कि राजनीति और राजनेताओं के वगैर व्यंग्य लिखा ही नहीं जासकता इन्हे केन्द्र में रखना ही पड़ता है, तो फ़िर टीका टिप्पणी ,आलोचना ,आक्षेप , उन्हें हास्य का केन्द्र विन्दु बनाना क्या व्यंग्य हो जाता है /
व्यंग्य हमेशा से लिखा जाता रहा है और लिखा जाता रहेगा दुनिया बनी यानी सेवफल खाने इत्यादि से लेकर लाल गेहूं खाने तक , बस इतना चाहता हूँ के मेरी समझ में आता रहे / या तो व्यंग्य इतना बड़ा होता है कि मेरे छोटे दिमाग में घुसता नहीं है या फ़िर दिमाग इतना बड़ा और खोखला है कि "" वदन पैठ पुनि बाहेर आवा, माँगा विदा ताहि सर नावा ""/ व्यंग्य हो तो ऐसा हो जैसे हम बचपन में आतिशीशीशा लेकर सूर्य की किरणों से अपने या अपने मित्र के शरीर पर जलन पैदा किया करते थे /

Sunday, September 14, 2008

आखिर वो नक़ल क्यों न करें

परीक्षा भवन में विद्यार्थी परीक्षा देते हैं ,उन्हें देना ही चाहिए =शिक्षक पर्यवेक्षक होते हैं / कभी कभी शिक्षकों को भी परीक्षा देना पड़ती है -शिक्षा का स्तर सुधारने के किए ,क्योंकि उनका ज़्यादा वक्त फोटो परिचय पत्र ,मतदाता सूची ,जनगणना ,पशुगणना में चला जाता है तो उन्हें शिक्षा का स्तर सुधारने के लिए पढ़ना और परीक्षा देना पढता है /
मैं एक समाचार पढ़ रहा था कि कुछ शिक्षक परीक्षा देरहे थे और साथ में नक़ल भी कर रहे थे -उनको पकड़ लिया गया और समाचार अख़बार में छप गया /में आश्चर्य चकित हुआ कि यदि नक़ल करने वाले छात्रों को पकड़ने वाले शिक्षकों ने नक़ल करली तो न तो यह दुःख की बात थी न समाचारपत्र में छपवाने लायक बात थी /इसमें कोई अचम्भे की बात नहीं थी /
अचम्भे की बात तो यह है कि वे पकड़े कैसे गए /यह तो निश्चित है कि उन्होंने पहली बार नक़ल नही की होगी /विधार्थी से शिक्षक बनने तक पचासों अवसर उनकी जिंदगी में आए होंगे और इतने अभ्यास के बाद भी कोई अपने प्रयास में सफल न हो पाये तो मन में दुःख जरूर होता है कि आज की पीडी कितनी निष्क्रिय होती जारही है /इतने अभ्यास के बाद तो इतने अभ्यस्त हो जाना चाहिए विदेशों में भी नक़ल कर आते और पर्यवेक्षक तो क्या गुप्तचर संस्था के बडे से बडे अधकारी भी न पकड़ पाते /
अब प्रश्न यह उपस्थित होता है कि वे पकड़े क्यों गए /क्या उस वक्त उनकी टेबल पर खुला हुआ चाकू नहीं रखा था , बाहर उनका कोई दादा मित्र नही खड़ा था ,क्या चिट इतनी बड़ी थी कि खाई नही जा सकती थी , चिट मोजे के अन्दर क्यों नहीं राखी गई , पकड़ने वाले को चांटा क्यों नहीं मारा गया , उसको बाहर देख लेने , उन पर तेजाब फैंक देने , उनके बच्चो के अपहरण की धौंस क्यों नही दी गई / क्या पकड़े जाने वाले लोग आर्थिक रूप से कमजोर थे ,क्या वे किसी पार्टी को विलोंग नहीं करते थे /
हमारा दुर्भाग्य है कि जहाँ प्रश्नपत्र अखवारों में पहले से ही छप जाते हैं या उसकी फोटो कापियां ५-५ सौ रुपयों में परीक्षा के पूव उपलब्ध हो जाती है वहां भी नक़ल करने की आवश्यकता महसूस होती है / जब तक परीक्षा पद्धति में आमूल -चूल परिवर्तन नहीं होगा यह समस्या विकराल रूप धारण करती ही रहेगी /सीधी सी बात है विद्यार्थी को कापी घर के लिए दे दी जाय और कोई भी पाँच प्रश्नों के उत्तर लिख कर विद्यालय में जमा करने की तिथि निश्चित कर दी जाए /विलंब शुल्क के सहित १५ दिन की एक और तारीख दे दी जाय ,एक तारिख अतिरिक्त विलंब के लिए और एक तारिख अत्यधिक विलंब के लिए /शुल्क प्रति विलंब दुगना चौगुना होते चला जाना चाहिए /इससे यह होगा कि प्रश्नपत्र बनबाने . उनको छपवाने का व्यय , उनकी गोपनीयता की सुरक्षा और गोपनीयता भंग होने पर आलोचना का भय और व्यर्थ की पेपर वाजी से बचा जा सकता है / क्या मतलब पहले शिक्षा जगत पेपर छापे , वही पेपर परीक्षा के पूर्व अखवार वाले छापें फिर आलोचनाएँ छपे ,फ़िर समाधान छपें और फिर दुबारा पेपर छापें , जांचें आदि करवाएं सो अलग /
नक़ल करना हमारा जन्मसिद्ध अधिकार है / अंग्रेजों की नक़ल हम आज तक करते चले आरहे हैं -फिल्मी हीरो गन की हेयर स्टाइल उनके कपडों की नक़ल , उनकी आवाज़ की नक़ल हम कर ही रहे है =अभी पिछडे क्षेत्रों में यह गनीमत है कि आयटम गर्ल की नक़ल अर्थात उनके कपडों की नक़ल विटियें नही कर पारही हैं /इस शर्मो- लिहाज ,बुजुर्गों के प्रति आदर सम्मान को आप कोई भी शब्द स्तेमाल कर सकते है मसलन बैकवर्ड -कूप मंडूक , ढोर ,गवांर , इल मेनर्ड आदि इत्यादि ,खैर
मजेदार बात ये है कि देश की न्याय प्रणाली में भी नक़ल का प्राबधान है /न्याय बिभाग - अदालत में खुले आम नक़ल होती है और इसके लिए उनहोंने एक अलग दफ्तर ही खोल रखा है / नक़ल करने वाले बाबू को सरकार भी पैसा देती है और पक्षकार भी / लेकिन एक बात है अदालत की नक़ल में अक्ल की आवश्यकता होती है फैसलों की यथावत नक़ल करना पढ़ती है , मिलान भी करना होता है जैसा शब्द लिखा है वैसा ही नक़ल करना पड़ता है , एक शब्द का उलट फेर भी गज़ब ढा देता है / अब तो खैरफोटोकोपी ,टाइप,कम्पुटर आदि अनेक साधन उपलब्ध हो चुके हैं मैं तो पुराने ज़माने की बात कर रहा हूँ एक जज साहेब ने फैसले पर दस्तखत करने के बाद फाइल बंद की तो उसमें एक मक्खी दब गई , मर गई बेचारे और क्या करती /फाइल कुछ दिनों के बाद नक़ल विभाग में पहुंची /बाबू साहेब नक़ल करते करते उठे -एक मक्खी मार कर लाये नक़ल के कागज़ के उस शब्द की नक़ल पर चिपकाई = इसे कहते है कापी टू कापी ,मक्खी टू मक्खी

Saturday, September 13, 2008

बरसात का मौसम लिखने का मौसम

आदि कल से जितने कवि शायर ,गीतकार हुए सभी ने ग्रीष्म और शीत ऋतू पर कम वर्षा ऋतू पर कुछ ज़्यादा ही लिखा है /किसी ने बदल डरावने बताये ,किसी ने उन्हें जुल्फें बताया , किसी ने हरियाली पर ,रिमझिम फुआरों पर मोर पपीहे पर सब पर लिखा /
सम्ब्हब है यह मौसम उन्हें रास आया हो , यह भी सम्ब्हब है उनके पास छाता रहता हो या पड़ोसी से उधार मिल जाता हो /यह भी हो सकता है की उनके बच्चे कापी किताब ,एडमीशन फीस आदि को परेशान नहीं करते होंगे या उनकी पत्नियों की ओर से आचार के लिए कैरी और सरसों के तेल की फरमाइश न की जाती होगी - हो सकता है वे कमरे से निकल बाथरूम तक प्लास्टिक या बोरी ओढ़ कर चले जाते होंगे /हो सकता है उनके मकान में सीलन न रहती हो और यह भी सम्भव है की कमरा उनका इतना बड़ा हो कि कि उसमें डोरी बाँध कर कपडे सुखा सकते होंगे और मकान मालिक डोरी बाँधने कील ठोक लेने देता होगा /यह भी सम्भव है कि उनके चड्डी बनियान सुखाने के लिए उनके घर में बिजली कि प्रेस रहती होगी /
किंतु यह तो सत्य है ही कि लिखने का मौसम तो बरसात का ही होता है / क्योंकि इन्ही दिनों कीडे पतंगे रोशनी के चारों ओर ऐसे चक्कर लगाते हैं जैसे किसी दफ्तर में एकाध पोस्ट निकलने पर शिक्षित बेरोजगार अपने अपने प्रमाण पत्रों का बण्डल लिए हुए चक्कर लगाने लगते हैं /उन बंडलों में मूल निवासी का प्रमाण पत्र भी होता है वह कैसे मिलता है लेने वाला जनता है वैसे देने वाला भी क्या पता जनता होगा या नहीं ,पता नही, क्योंकि वहां तो इकट्ठे दस्तखतों के लिए कागज जाते है -किसने क्या किया उसे कहाँ पता चल पाता है =है दुष्यंत कुमारजी को पता चल गया था तो उनहोंने कह दिया कि ""यहाँ तक आते आते सूख जाती है सभी नदियाँ ,हमें मालूम है पानी कहाँ ठहरा हुआ होगा ""/बरसात के मौसम में जगह जगह पानी गड्ढों में ऐसे एकत्रित हो जाता है जैसे साहित्यकार कर्मचारी के टेबल पर फाइलें जमा हो जाती हैं/ बिजली ऐसे चमक जाती है जैसे किसी शोकसभा में नेताजी मुस्करा रहे हों , बदल ऐसे गरजने लगते है जैसे कोई क्रोधी व्यक्ति पूजा पाठ कर रहा हो / कभी कभी पानी बॉस के गुस्से की तरह बडी बडी बूंदों से गिरता है /धूप के दरसन दुर्लभ हो जाते है जैसे वार्ड मेम्बर के वार्ड में और चिकित्सक के अस्पताल में / कपडे सुखाने लोग ऐसे तरस जाते है जैसे कर्मचारी महगाई भत्ते को / मक्खी मच्छर जनसँख्या की मानिंद बड़ते चले जाते है और छितराए बदल इधर उधर ऐसे भाग ने लगते है जैसे जुए के अड्डे पर पुलिस की रेड पडी हो/
इस मौसम में बरसात की बूंदों के साथ आदमी वैसे ही नाचने लगता है जैसे पड़ोसी का बच्चा फ़ैल हो जाए ,लडकी कहीं चली जाए या मियां बीबी में झगडा होजाए ,देख कर पड़ोसी नाचता है / पक्षियों के साथ वह ऐसे गाने -गुनगुनाने लगता है जैसे शोर पोलुशन के प्रभाव को न जानने वाले किंतु शिक्षित लोग मोहल्ले में माइक लगा कर रात भर कीर्तन करते है / बादलों के साथ वह ऐसे उड़ने लगता है जैसे चुनाव जीत कर लोग हवाई जहाज़ में उड़ते हैं /मोरों के साथ वह ऐसे झूमने लगता है जैसे अपराधी लोग उनके बॉस के वरी होने पर शेम्पेन खोल कर झूमते हैं/
कभी कभी बदल इतने नीचे आजाते है जैसे एयर कंडीशन कार से उतर कर कोई मोहल्ले मोहल्ले वोट मांग रहा हो /बादलों के कारण निस्तेज तारे -बादलों को हटाने हेतु हवा से गटबंधन करते है ताकि हवा बादलों को उड़ा लेजाये और फिर वे अपनी छवि जनता को दिखा सकें और डरते भी है कि कहीं ऐसा न हो जाए कि बदल और हवा का ही कहीं गठबंधन न हो जाए /
जैसे कारण ,कर्ता और कर्म इन तीनो चीजों से ही कर्म पूर्ण माना जाता है वैसे ही एडमीशन फीस .कापी किताबों और छाता रेन कोट से मानसून सत्र पूर्ण होता है /जैसे ज्ञान ज्ञेय और परिजाता से कर्म की प्रेरणा होती है वैसे ही फीस किताबें छाता आदि से प्रोविडेंट फंड से एडवांस लेने की प्रेरणा होती है / कोई अपने बच्चे का मुंडन , तो कोई कर्णछेदन कराता है तो कोई अपनी पत्नी को ही बीमार कर देता है / वे कह रहे थे कि पत्नी का वास्तविक उपयोग यही है कि कर्मचारी वक्तन फ वक्तन पत्नी को बीमार करता रहे और प्रोविडेंट फंड से कभी टेम्परेरी ,कभी पार्ट फाईनल निकलता रहे /
इस मौसम में सबसे बड़ी परेशानी का सवव होता है छाता /क्योंकि भीगते तो छाता में भी है मगर शराफत से / अब आप बताइये जब छाता एक आदमी को भी नहीं बचा पाता बरसात से, तो ऐसे में यह गाने की क्या जरूरत है कि ""मेरी छतरी के नीचे आजा क्यों भीगे .......खड़ी खड़ी /एक तो दिक्कत यह है कि छाते खोते बहुत है /दफ्तर ले गए ,खोला ,सूखने रख दिया ,शाम को पानी बंद हो गया भूल आए /असल में कर्मचारी साडे पाँच बजते ही ऐसे भागते है कि दस मिनट भी रुक गए तो अनर्थ हो जाएगा / अगर बॉस छुट्टी पर हो तो पाँच बजने का भी क्या मतलब / दूसरे दिन तलाशेंगे -फिर मिलता है क्या / एक दिन वे छाते पर अपना नाम लिखवा रहे थे = बोले खोयेगा नहीं /मैंने कहा जब कोई तेरा छाता उठा कर ले जाएगा तो तेरा नाम,चिल्लाएगा क्या कि यह मुझे ले जा रहा है /मगर नहीं माने नाम लिखवा ही लिया /
सच है बरसात किसी के लिए मुसीवत है ,किसी के लिए मसर्रत है ,किसी के लिए हकीकत है तो कवियों और लेखकों को प्रेरणा प्रदान करने वाली है

कवि गोष्ठी

ऐसा लगता है कि कवि गोष्ठीयों में दिलचस्पी रखने वाला साहित्य प्रेमी आज वंचित हो गया है या यह भी कह सकते हैं कि वंचित कर दिया गया है /महत्त्व पूर्ण कवि साथी लगातार ऐसे कार्यक्रमों का आयोजन करते रहते हैं क्यों कि कवि अपनी बात कहना चाहता है वोह उत्सुक है अपनी सुनाने को अपनी छपाने को साथ ही उसकी यह शिकायत कि उसकी रूचि अनुकूल श्रोता नहीं मिल पाते हैं /कवियों के पास विपुल सामग्री है नगर में साहित्यकारों की कमी नहीं फिर भी कवि गोष्ठियों में श्रोता दिखाई नहीं देते /अब या तो वे आते नहीं या बुलाए जाते नहीं "हमसे आया न गया तुमसे बुलाया न गया "

मानवीय मनोब्रत्ति कि सच्चाई छूकर साहित्य सृजन कर कवि उसे अभिव्यक्त करना चाहे और उसे उपयुक्त पात्र न मिले या मिलने पर उसके सराहना न करे तो साहित्यकार को म्रत्यु तुल्य पीड़ा ( वह जैसी भी होती हो ) होना स्वाभाविक है -यही पीड़ा सम्पादकीय अनुकूलता न मिलने पर भी होती है तो ऐसे कवियों या लेखकों को यह कहने पर विवश होना पढता है कि हम तो ""स्वांत सुखाय " लिख रहे हैं /मैं भी पहले लेख लिख कर भेजता था और खेद सहित वापस आजाता था तो उसे स्वांत सुखाय के पेड़ में बाँध दिया करता था /१५ साल पुराने स्वांत सुखाय वाले लेख जब आज पढता हूँ तो लगता है कि सम्पादक सही थे वे लेख पाठक दुखाय ही थे / कमोवेश हर कवि कि इच्छा होती है कि वह अपने यहाँ गोष्ठी आयोजित करे मगर या तो वह किराये के मकान में रहता है या पुराने पुश्तैनी मकान में - जिनमें बड़े हाल का अभाव रहता है = हालाँकि वोह चाय पानी फूल माला सब की व्यवस्था अपनी आर्थिक तंगी के वावजूद करना चाहता है मगर उसके बच्चे बच्चियां इसे व्यर्थ का हुल्लड़ कहकर उसकी इच्छा को दवा देते हैं/
पत्नियाँ तो खैर पतियों से नाराज़ रहती ही हैं क्योंकि वे गोष्ठियों से देर रात घर लौट ते हैं /पत्नी आर्थिक 'मानसिक 'शारीरिक सब कष्ट वर्दाश्त कर सकती है -किंतु पती का देर रात लौटना उसकी वर्दाश्त से बाहर है क्योंकि उधर कवि ज्ञान बघारते रहते है और इधर ये सब्जी बघारती रहती है /
अब कवि को गोष्ठी में बुलाया है और वह दोराहे पर खड़ा है " मैं इधर जाऊं या उधर जाऊं " और कविता का नशा उसे गोष्ठी की ओर खींच ले जाता है / आयोजक समय देता है ८ बजे कवि एकत्रित होते हैं दस बजे तक / कुछ कवि तो इतनी देर से पहुँचते हैं के तब तक आधे से ज़्यादा कवि पढ़ चुके होते हैं /इसमे एक फायदा भी है की उन्हें ज़्यादा देर इंतज़ार नहीं करना पड़ता और जाते ही सुनाने का नंबर लग जाता है /
गोष्ठियों में अब जो अपनी सुना चुके है बे वहाँ से खिसकने के मूड में होते है /सबसे सुगम रास्ता कान पर जनेऊ चढाया और उठ खड़े हुए गोया आते हैं अभी / कुछ लोग जनेऊ पहनते ही इसलिए हैं की वक्त वेवक्त काम आता रहे /अब जो बड़ी बड़ी डायरिया और बही खाते लेकर पहुँचते है उनको खिसकने में दिक्कत होती है अध्यक्ष बेचारा फंस जाता है भाग भी नही सकता और उसे सब से अंत में पढ़वाया जाता है जब तक चार -पाँच लोग ही रह जाते है / मैंने देखा है अखंड रामायण का पाठ -१२ बजे रात तक ढोलक मंजीरे हारमोनियम =दो बजे तक तीन चार लोग रह जाते है एक जो व्यक्ति तीन बजे फंस गया सो फंस गया सुनसान सब सो गए इधर इधर देखता रहता है और पढता रहता है काश कोई दिख जाए तो उससे पञ्च मिनट बैठने का कहकर खिसक जाऊँ -मगर कोई नहीं =न बीडी पी सकता है न तम्बाखू खा सकता है /तीन से पाँच का वक्त बडा कष्ट दाई होता है /सच है भगवान् जिससे प्रेम करते है उसी को कष्ट देते हैं इससे सिद्ध हो जाता है की तीन बजे से पाँच बजे तक पाठ करने वाले और गोष्ठियों के अध्यक्ष से ही भगवान् प्रेम करते हैं /
कवि की कविता पूर्ण होने पर दूसरे कवि तालियाँ बजाते है और बीच बीच में बाह बाह करते रहते है -आह कोई करताइच नई -क्योंकि उन्हें भी सुनना है /वास्तव में तालिया इस बात का द्योतक होती है कि प्रभु माइक छोड़ अपनी सिंहासन पर विराजमान होजाइये मगर जब वह वहीं बैठ कर डायरी के पन्ने पलट कर सुनाने हेतु और कविताये ढूढने लगता है तो शेष कवियों के दिल की धड़कन बढ़ जाती है चेहरे की रोनक विगड़ने लगती है / उधर कवि भी तो कहता है कि एक छोटी सी रचना सुनाता हूँ और फ़िर शुरू होजाता है -शेष कवियों कि भी कोई गलती नही वर्दाश्त कि भी हद होती है /क्योंकि कवि का जब तक नम्बर नही आता सुनाने का तब तक उसे गोष्ठी में बड़ा आनंद मिलता है और ज्यों ही उसने अपनी सुनाई उसे संसार नीरस प्रतीत होने लगता है बोर होने लगता है सोचता है माया मोह के बंधन सब झूंठे है वह स्थित प्रज्ञ सन्यासी की भांति निर्वाक और निस्पंद /
कुछ श्रोता है जो वाकई गोष्टी का आनंद लेना चाहते है उनको तो बेचारों को टीबी पता चलता है जब दूसरे दिन लोकल समाचार पत्र में छपता है कि किसने क्या कहा /पेपर में नहीं छापा तो गोष्ठी का मतलब ही क्या /सबसे पहले कवि उसमें अपना नाम देखता है इत्तेफाकन किसी कवि का नाम छूट जाए तो आयोजक और सचालक की खैर नहीं