Tuesday, April 22, 2008

खिचडी भाषा की बात ही कुछ और है

विशुद्ध अंग्रेज़ी कोई बोल नही सकता और विशुद्ध हिन्दी कोई समझ नहीं सकता तो कोई वो क्यों बोले -खिचडी भाषा न बोले -
शासकीय कार्यालय में पत्र टाईप होने के पूर्व उस पत्र का मसौदा यानी ड्राफ्ट तैयार होता है - सरकारी कायदा है नींचे वाला ड्राफ्ट तैयार करता है और ऊपर वाला एप्रूब करता है -वहाँ योग्यता बेमानी है पद की गरिमा की बात है ऊंची कुर्सी की बात है तो ऊपर वाला हर ड्राफ्ट में संशोधन जरूर करता है -वैसा का वैसा ही अप्रूब कर दिया तो एप्रूबल का मतलब ही क्या -आखिर सुपीरअर्टी का भी कोई मतलब होता है = मैंने एक बार उन्ही के तैयार किए गए एक पत्र की तारीख तब्दील की और यथावत हाथ से नकल कर अप्प्रूब्ल के लिए भिजवादिया =वे ड्राफ्ट पढ़ते जा रहे थे -उसमें आवश्यक संशोधन करते जारहे थे और साथ में बड़बडाते भी जा रहे थे ==क्या कमाल का दफ्तर है जरा सा ड्राफ्ट तक सही तयार नहीं कर सकते -भाषा का कार्यकारी ज्ञान तक नहीं है आदि इत्यादी
एक बार मैंने ड्राफ्ट में कुछ साहित्यिक शब्द डाल दिए - शासकीय यानी कार्यालयीन शब्दों की एक सीमा है लगभग सौ सबा सौ शब्द - समस्त कार्यालयीन दुनिया इन्ही शब्दों के इर्द गिर्द घूमती है इन्ही सौ सवा सौ शब्दों से लाखों पत्र -परिपत्र -स्मरण पत्र -अर्ध -शासकीय पत्र रोजाना तैयार होते हैं -इन शब्दों के अलावा एक भी विजातीय शब्द इनमें सम्मिलित हो जाता है तो बात अखरने वाली हो जाती है और चूंकि बात अखरने वाली हो चुकी थी इसलिए उन्होंने मुझे तलब किया -बोले देखिये ये कार्यालय है कोई साहित्यिक संगठन या सभा नहीं है -शब्द वही प्रयोग करो जो शासकीय हों -सामने वाले को भी पता चलना चाहिए की पत्र शासकीय है
अपने गाँव की बोली व लहजा ={काये रे कैसो आओ थो} = मुझे पसंद है और बचपन से लेकर आज तक बोलता हूँ -मगर इधर कुछ वर्षों से जबसे बच्चे बडे हुए - उनके कुछ कोंवेन्टी मित्र मित्रानियों का हमारे ग्रह में पदार्पण प्रारम्भ हुआ है मेरी खड़ी बुन्देल खंडी बोली उन्हें रास नहीं आती -हालांकि वे मुंह से कुछ नहीं कहते पर हाव-भाव से व्यक्त हो ही जाता है "इशारों को अगर समझो "
बोलना ही नहीं मेरा उठाना बैठना तक -जब कभी में चाय पीने बैठक में चला जाता हूँ और दोनों पैर सोफे पर रख कर बैठ जाता हूँ और कप से चाय प्लेट में लेकर पीता हूँ या एकाध बिस्किट उठा कर चाय में डुबो लेता हूँ तो बच्चों की निगाहें एक दूसरे से कुछ कहने लगती हैं
एक दिन पुत्र रत्न ने अत्यन्त सकुचाते हुए कहा -आपकी भाषा और लहजे पर मेरे मित्र हँसते हैं तो मैंने उसी दिन "मूंछें हों तो नत्थूलाल जैसी हो वरना न हो " वाले लहजे में तय किया कि बोलूँगा तो विशुद्ध बोलूँगा नहीं तो नहीं बोलूँगा -एक दिन घर में मित्र मंडली जमी थी -मैंने बैठक में जाकर पुत्र से कहा "भइया मेरे द्विचक्र वाहन के प्रष्ठ चक्र से पवन प्रसारित हो चुका है उसमें शीघ्रतीशीघ्र पवन प्रविष्ट करवा ला ताकि कार्यालय प्रस्थान में मुझे अत्यधिक विलम्ब न हो " में तो कह कर चला आया परन्तु फूसफुसाह्ट मैंने सुनली पुत्र का एक मित्र कह रहा था "क्यों रे तेरे पापा का एकाध पेंच ढीला तो नहीं है
एक बार आफिस जाते वक्त मैंने जैसे ही जेब में हाथ डाला -रूमाल नदारद था मैंने पत्नी को आवाज़ दी 'मेरा मुख मार्जन वस्त्र खंड कमरे में कहीं रह गया है अवलोकन कर मुझे प्रदत्त कर दीजिये -पत्नी तो झल्लाती हुई चली गई मगर गुवाड़ी की अन्य महिलाओं और बच्चों के मध्य मैं हंसी का पात्र बन गया
हमारी गुवाड़ी में एक बहिनजी रहती है ठेठ देहाती परिवार -प्राइमरी स्कूल में बहिनजी की नौकरी लग गई तो परिवार यहाँ आगया एक दिन बहिनजी की सहकर्मी बहिनजियाँ उनके घर आयी तो इन बहिनजी ने बोलने के इस्टाइल -लहजा शब्द सब बदले -यह सब बदला तो बदले में बहिनजी के छोटे भाई बहिन भोंचक्के से होकर बहिनजी के मुंह तरफ ताकने लगे आखिर सबसे छोटी बोल ही उठी " काये री जीजी आज तोये हो का गयो तू आज कैसे बोल रई है "
पूर्व में थोड़ी घणी कालम ध्यान से पढ़ता था -बहुत पहले रेडियो इंदोर पर + राम राम भाई नंदाजी -राम राम भाई कान्हाजी ध्यान से सुनता था एक धारा वाहिक आया था नीम का पेड़ उसका बुधिया मुझे बडा पसंद आया था परन्तु मेरा बोलना किसी को पसंद नहीं =नहीं पसंद आएगा -शेर की दाढ़ से खून नहीं खिचडी लग गयी है अब तो वही पकेगी वही खाई जायेगी वही बोली जायेगी वही सुनी जायेगी

1 comment:

दीपक भारतदीप said...

आपने सरकारी कार्यालयों की जानकारी से लोगों को अवगत कराया है उससे वह लोग जो सरकारी कार्यालयीन गतिविधियों से अवगत नहीं है समझ जायेंगे कि वहां क्या और कैसे होता है। बहुत बढि़या।
दीपक भारतदीप